Tanaji Malusare: छत्रपति शिवाजी महाराज के सेनापति सूबेदार तानाजी मालुसरे की कहानी
Subedar Tanaji Malusare: मराठा अपनी युद्ध नीति और बहादुरी के लिए जाने जाते है | 17वीं सदी के मराठा योद्धा और छत्रपति शिवाजी महाराज के सेनापति सूबेदार तानाजी मालुसरे की कहानी बड़ी दिलचप्स है | तानाजी मालुसरे का जन्म 1600 ई. में गोडोली, जवाली तालुका, सतारा जिला, महाराष्ट्र में हुआ था। मालुसरे को विशेष रूप से कोंधाना किला (सिंहगढ़) (1670) को जीतने के लिए जाना जाता है। तानाजी ने शिवाजी के आदेश पर मुगलों के खिलाफ सिंहगढ़ की लड़ाई लड़ी और किले पर कब्जा कर लिया लेकिन ऐसा करते समय उनकी मृत्यु हो गई। सामरिक दृष्टि से यह मराठों का बहुत महत्वपूर्ण किला था। जिस पर मुगल अपना अधिकार चाहते थे।
पुरंदर की संधि कब हुई ?
छत्रपति महाराज शिवाजी की बढ़ती शक्ति से चिंतित होकर मुगल बादशाह औरंगजेब ने दक्षिण में तैनात अपने सूबेदार को उन पर हमला करने का आदेश दिया। उस वक़्त छत्रपति शिवाजी के पास कई किले थे जिनकी मरम्मत पर उन्होंने भारी रकम खर्च की। लेकिन धीरे-धीरे मुगलों ने करीब 23 किलों पर कब्जा कर लिया। पुरंदर के किले की रक्षा करने में खुद को असमर्थ पाकर शिवाजी ने 22 जून 1665 ई. को महाराजा जय सिंह के साथ पुरंदर की संधि पर हस्ताक्षर किये। जिसके कारण शिवाजी महाराज को कोंधाना का किला मुगलों को देना पड़ा। इस किले पर 1665 में राजपूत कमांडर जय सिंह प्रथम के नेतृत्व में मुगलों ने कब्ज़ा कर लिया था। मगर छत्रपति शिवाजी इस किले को वापस पाना चाहते थे।
मुगलों द्वारा छत्रपति शिवाजी को बंदी बनाना
इसके बाद 1665 की पुरंदर संधि के बाद जब छत्रपति शिवाजी औरंगजेब से मिलने आगरा गए तो वहां उन्हें धोखे से बंदी बना लिया गया। किसी तरह शिवाजी आगरा निकलकर महाराष्ट्र पहुंचे और पुरंदर की संधि को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद मुगलों के कब्जे में आए किलों को जीतने का सिलसिला शुरू हो गया। क्योंकि यह किला मराठों के लिए सम्मान की बात थी। यह किला विशेष रूप से महत्वपूर्ण था क्योंकि कहा जाता था कि इस किले पर जीत मतलब ‘पूना’ पर अधिकार।
कोंधाना किला किले पर मराठा की जीत
ऐसे में शिवाजी महाराज ने अपने प्रिय मित्र और सेनापति तानाजी मालुसरे (Subedar Tanaji Malusare) को इस पर विजय प्राप्त करने के लिए भेजा। लगभग 70,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस किले का एक दरवाजा पुणे की ओर और दूसरा दरवाजा कल्याण की ओर खुलता है। तानाजी अपने भाई सूर्या जी के साथ लगभग 300 सैनिकों के साथ इस किले को जीतने गए थे। किले की दीवार इतनी सीधी और सपाट थी कि उस पर आसानी से चढ़ना संभव नहीं था। इस किले की सुरक्षा के लिए लगभग 5000 मुगल सैनिक किले में तैनात थे।
इसी दौरान किले के नीचे पहुँचने के बाद तानाजी योजना के अनुसार रस्सी के सहारे किले में प्रवेश करने में सफल हो गये। एक-एक करके तानाजी की पूरी सेना किले में घुस गई और युद्ध शुरू हो गया। इस बीच, जब उदयभान राठौड़ जो कि किले की रक्षा करने वाले राजपूत सेनापति था, उसे इस बारे में पता चला, तो उसने तानाजी पर हमला कर दिया। इस हमले में तानाजी की ढाल टूट गयी। पर युद्ध में तानाजी को उदयभान ने मार डाला और शहीद कर दिया। लेकिन अंत में मराठों ने इस किले पर कब्ज़ा कर लिया और मराठा ध्वज फहराया गया।
किला जीतने के बावजूद, शिवाजी महाराज जीवन भर अपने प्रिय सेनापति की मृत्यु का शोक मनाते रहे। तानाजी की मृत्यु का समाचार सुनकर शिवाजी ने कहा – ‘गढ़ आला, पण सिंह गेला’ अर्थात किला तो हमने जीत लिया लेकिन हमने अपना शेर खो दिया । शिवाजी ने तानाजी को शेर कहा था। शिवाजी महाराज तानाजी मालुसरे को शेर कहा करते थे।