History

Jallianwala Bagh: जलियांवाला बाग हत्याकांड क्यों हुआ था, जिसके ज़ख्म आज भी ताजा

Jallianwala Bagh: पंजाब ने सदियों से कई बुरे दौर देखे है | पंजाब को कई साल पहले भारत का प्रवेश भी कहा जाता है, जहा से बाहरी हमलावर भारत में आते थे, जहां बाहरी हमलावरों को पंजाब के योद्धा से दो हाथ करने पड़ते थे | पंजाब के लोग हमेशा से होंसले और वीरता के लिए जाने जाते है | जिन्होंने बाहरी हमलावरों को धूल चटा दी थी | पर 13 अप्रैल 1919 को बैसाखी पर जो हुआ उसके ज़ख्म आज भी ताजा है |

इतिहास में जिक्र है कि जलियांवाला बाग पंडित जल्ले का था लेकिन इतिहास के पन्ने कुछ और ही बताते हैं| जिला फतेहगढ़ साहिब की सरहिंद तहसील और ब्लॉक के गांव जल्लाह और जलियांवाले बाग का रिश्ता खास रहा है।

गुरुओं की भूमि अमृतसर शहर को श्री गुरु रामदास जी ने बसाया था। इस शहर की सड़कें हर युग में खूनी इतिहास की गवाह रही हैं। 1919 में अमृतसर एक बड़ा शहर था यह एक बड़ा व्यवसाय केंद्र था। यहां सिखों, मुसलमानों, हिंदुओं की आबादी थी। यह व्यापार का एक बड़ा केंद्र होने के साथ-साथ गंगा-जमुना की भूमि से आए हिंदू व्यापारियों का भी मुख्य केंद्र था और कश्मीरी व्यापारियों का यहाँ एक पूरा बड़ा बाज़ार था, इसके अलावा एक पवित्र शहर था और सिजदा की प्रार्थनाएँ होती थीं।

13 अप्रैल 1919 को बैसाखी के शुभ अवसर पर भारत को ऐसे घाव मिले जो 105 साल बाद भी भुलाए नहीं जा सकते। आज हम आपको गुलाम भारत की एक ऐसी कहानी बताने जा रहे हैं, जिसे कई साल बीत गए हैं, लेकिन यह हमें बताती है कि हमारे पूर्वजों ने आजादी के लिए क्या संघर्ष किया था।

जलियांवाले बाग की कहानी ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत की आम जनता पर किये गये सबसे बड़े अत्याचारों में से एक है। जलियांवाला बाग का नरसंहार बैसाखी के दिन यानि 13 अप्रैल को हुआ था। इस दिन को हर भारतीय शहीद दिवस के रूप में मनाता है। इस दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में खून की नदियां बह गईं।

13 अप्रैल, 1919 को बैसाखी के शुभ अवसर पर बड़ी संख्या में लोग यहां एकत्र हुए और स्वतंत्रता सेनानियों सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी के खिलाफ एक बैठक की। हालाँकि, इस दिन अंग्रेजी सरकार ने लोगों की आवाज को दबाने के लिए शहर में कर्फ्यू लगा दिया था। लेकिन इसके विरोध में शहर की कई महिलाएं, बच्चे और पुरुष अपने घरों से बाहर निकल आये और जलियांवाला बाग में बैठ गये | सभी लोग वहां शांति से बैठे थे, इसके साथ ही कुछ लोग बैसाखी के मौके पर मेला देखने भी पहुंचे थे |

इसी बीच ब्रिटिश ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड डायर (जनरल डायर) ने ब्रिटिश सैनिकों को वहां बैठे प्रदर्शनकारी बच्चों, महिलाओं और पुरुषों पर गोली चलाने का आदेश दिया। इस नरसंहार में कई परिवार मारे गए, इस नरसंहार में लोगों को भागने का मौका भी नहीं मिला। जलियांवाला बाग चारों तरफ से मकानों से घिरा हुआ था और वहां जाने का केवल एक ही रास्ता था जो बहुत तंग रास्ता था। इसके चलते लोग वहां से निकल नहीं पाए और फंस गए।

अंग्रेजों ने महज 10 मिनट में करीब 1600 से ज्यादा गोलियां चला दी थीं, इन गोलियों से बचने के लिए लोग बगीचे में बने कुएं में कूद गये, कुछ ही देर में कुआँ लाशों से भर गया। वैसे जलियांवाला बाग त्रासदी में कितने लोग शहीद हुए थे इसका सटीक आंकड़ा आज भी नहीं मिल सका है | अंग्रेजी सरकार के दस्तावेज़ हैं कि 379 लोग मारे गए और 200 से अधिक लोग घायल हुए। लेकिन अपुष्ट आंकड़ों के मुताबिक 1000 से ज्यादा लोग शहीद हुए और 2000 से ज्यादा लोग घायल हुए |

जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे भारत में गुस्सा फैल गया और ब्रिटिश शासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए। प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश शासन का समर्थन करने वाले महात्मा गांधी ने औपनिवेशिक सरकार के साथ असहयोग आंदोलन का भी आह्वान किया था।

इस हत्याकांड की दुनिया भर में आलोचना हुई थी, दबाव में, भारत के राज्य सचिव एडविन मॉन्टेग्यू ने 1919 में हंटर कमीशन की स्थापना की। आयोग की रिपोर्ट आने के बाद डायर को डिमोशन कर दिया गया। उन्हें कर्नल बना दिया गया और ब्रिटेन वापस भेज दिया गया। हाउस ऑफ कॉमन्स ने डायर के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित किया, लेकिन हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने हत्या के लिए उसकी सराहना करते हुए प्रशंसा प्रस्ताव पारित किया। बाद में दबाव में आकर ब्रिटिश सरकार ने निंदा प्रस्ताव पारित किया। 1920 में डायर को इस्तीफा देना पड़ा। जनरल डायर की 23 जुलाई 1927 में सेरेब्रल हेमरेज और आर्टेरियोस्क्लेरोसिस से मृत्यु हो गई थी ।

इस जलियांवाला बाग त्रासदी में उधम सिंह भी मौजूद थे, इस घटना का उन पर गहरा असर पड़ा था । इसके बाद 21 साल बाद 1940 में वह लंदन पहुंचे और 13 मार्च 1940 को उधम सिंह ने लंदन कैक्सटन हॉल में जलियांवाला बाग नरसंहार का आदेश देने वाले जनरल माइकल ओ’डायर की गोली मार दी |

गोली लगने के बाद उधम सिंह वहां से भागे नहीं बल्कि गिरफ्तारी के लिए आत्मसमर्पण कर दिया। उन पर 4 जून 1940 को हत्या का मुकदमा चलाया गया और उन्हें दोषी ठहराया गया और 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई।

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