Dadasaheb Phalke: भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के
Dadasaheb Phalke: भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) ने 1913 में पहली भारतीय फीचर फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई थी। उनकी याद में भारत सरकार ने 1969 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार की शुरुआत की। 51वां दादा साहेब फाल्के पुरस्कार महान अभिनेत्री रेखा को प्रदान किया गया था।
दादा साहिब फाल्के (Dadasaheb Phalke) का पूरा नाम धुंधिराज गोविंद फाल्के था। उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के नासिक के पास त्र्यंबकेश्वर में हुआ । उनके पिता दाजी शास्त्री फाल्के संस्कृत के विद्वान थे। कुछ समय बाद दादा साहिब फाल्के का परिवार मुंबई आ गया।
दादा साहेब फाल्के का बचपन से ही झुकाव कला की ओर था और वह इसी क्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहते थे। 1885 में उन्होंने जेजे कॉलेज ऑफ़ आर्ट में दाखिला ले लिया। दादासाहेब फाल्के अपनी कला की शिक्षा भी बड़ौदा के प्रसिद्ध कला भवन में प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने एक ड्रामा कंपनी में पेंटर का काम किया। 1903 में उन्होंने पुरातत्व विभाग में एक फोटोग्राफर के रूप में काम करना शुरू कर दिया ।
कुछ समय बाद दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) को फोटोग्राफी में मन नहीं लगा और उन्होंने एक फिल्म निर्माता के रूप में अपना करियर बनाने का फैसला किया। 1912 में दादा साहेब फाल्के ने अपने सपने को साकार करने के लिए अपने दोस्त से पैसे लेकर लंदन चले गए। लगभग दो सप्ताह तक लंदन में फिल्म निर्माण की बारीकियों को सीखा और फिल्म निर्माण से संबंधित उपकरण खरीदकर मुंबई वापिस लौट आए।
फिल्म राजा हरिश्चंद्र के लिए अभिनेत्री की तलाश
इसके बाद दादा साहिब फाल्के (Dadasaheb Phalke) ने मुंबई आकर ‘फाल्के फिल्म कंपनी’ की स्थापना की और अपने बैनर तले राजा हरिश्चंद्र नाम की फिल्म बनाने का फैसला किया। यह करना इतना आसान नहीं था, फिर उन्होंने इसके लिए फाइनेंसर की तलाश शुरू कर दी। इस दौरान उनकी मुलाकात फोटोग्राफी इक्विपमेंट डीलर यशवंत नाडकर्णी से हुई, जो दादा साहब फाल्के से बहुत प्रभावित हुए और उनकी फिल्म के फाइनेंसर बन गए |
फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण के दौरान दादा साहेब फाल्के को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा । असल में दादा साहिब फाल्के चाहते थे कि उनकी फिल्म में एक महिला अभिनेत्री की भूमिका निभाए। लेकिन उन दिनों महिलाओं का फिल्मों में काम करना बुरा माना जाता था। उन्होंने रेड लाइट एरिया में भी तलाश शुरू कर दी, लेकिन फिर भी कोई महिला फिल्म में काम करने को तैयार नहीं हुई। दादा साहेब फाल्के की यह तलाश एक रेस्टोरेंट के कुक सालुके के पास जाकर पूरी हुई।
दादा साहब फाल्के अपनी फिल्म के जरिए भारतीय दर्शकों को कुछ नया करना चाहते थे। वह फिल्म निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने फिल्म के निर्देशन के अलावा लेखन, सिनमोटोग्राफी, संपादन, चित्रांकन की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उन्होंने फिल्म के वितरण का काम भी किया।
फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण के दौरान दादा साहेब फाल्के की पत्नी सरस्वतीबाई फाल्के ने उनकी काफी मदद की। इस बीच उन्होंने फिल्म में काम कर रहे करीब 500 लोगों के लिए खाना बनाया और उनके कपड़े धोए। फिल्म की निर्माण लागत लगभग 15,000 रुपये थी, जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी।
आखिर वह दिन आ ही गया जब फिल्म की स्क्रीनिंग होनी थी। फिल्म को पहली बार 3 मई 1913 को मुंबई के कोरोनेशन सिनेमा हॉल में प्रदर्शित किया गया था। करीब 40 मिनट की इस फिल्म को दर्शकों का भरपूर समर्थन मिला यह फिल्म सुपरहिट साबित हुई थी।
मोहिनी भस्मासुर फिल्म
फिल्म राजा हरिश्चंद्र सुपरहिट होने के बाद दादा साहब फाल्के नासिक आए और मोहिनी भस्मासुर फिल्म का निर्माण शुरू कर दिया । यह फिल्म करीब तीन महीने तैयार हुई। फिल्मी दुनिया के इतिहास में मोहिनी भस्मासुर का बहुत महत्व है क्योंकि इस फिल्म ने दुर्गा गोखले और कमला गोखले जैसी अभिनेत्रियों को भारतीय फिल्म उद्योग में पहली महिला अभिनेत्री बनने का गौरव प्राप्त है। यह फिल्म करीब 3245 फीट लंबी थी जिसमें उन्होंने पहली बार ट्रिक फोटोग्राफी का इस्तेमाल किया था। दादा साहब फाल्के की अगली फिल्म सत्यवान सावित्री 1914 में रिलीज हुई थी।
फिल्म सत्यवान सावित्री भी सुपरहिट रही और इसके बाद दादासाहेब फाल्के की लोकप्रियता पूरे देश में फैल गई और दर्शक उनकी फिल्म देखने के लिए इंतजार करने लगे। वह भारत में हर दर्शक को अपनी फिल्म दिखाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने तय किया कि वह अपनी फिल्म के करीब 20 प्रिंट तैयार करेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा दर्शकों को फिल्म दिखाई जा सके।
दादा साहेब फाल्के (Dadasaheb Phalke) को 1914 में एक बार फिर लंदन जाने का मौका मिला। वहां उन्हें लंदन में रहने और फिल्म निर्माण का काम पूरा करने के कई ऑफर भी मिले। लेकिन दादा साहेब फाल्के ने उन सभी ऑफरस को यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वह एक भारतीय हैं और भारत में ही फिल्में बनाएंगे।
इसके बाद उन्होंने 1918 में श्रीकृष्ण जन्म और 1919 में कालिया मर्दान जैसी सफल धार्मिक फिल्मों का निर्देशन किया। इन फिल्मों का रोमांच दर्शकों के सिर चढ़कर बोल रहा था। लोग इन फिल्मों को देखकर भक्ति के भाव में लीन हो जाते थे। फिल्म लंका दहन के प्रदर्शन के दौरान श्रीराम और कालिया मर्दन के अभिनय के दौरान जब श्रीकृष्ण पर्दे पर आए तो पूरे दर्शकों ने उन्हें नमन किया।
1917 में दादा साहेब फाल्के कंपनी का हिंदुस्तान फिल्म्स कंपनी में विलय हो गया। इसके बाद दादा साहब फाल्के फिर नासिक आए और स्टूडियो स्थापित किया। फिल्म स्टूडियो के अलावा, उन्होंने अपने टकनीशियनों और कलाकारों के संयुक्त परिवार के रूप में एक साथ रहने के लिए वहां एक इमारत की स्थापना की।
20 के दशक दौरान दर्शकों का रुझान धार्मिक फिल्मों से हटकर एक्शन फिल्मों की ओर हो गया, जिसने दादा साहब फाल्के को गहरा झटका दिया। फिल्मों में व्यावसायिकता के वर्चस्व को देखते हुए आखिरकार उन्होंने 1928 में फिल्म उद्योग से संन्यास ले लिया। हालांकि उन्होंने 1931 में रिलीज हुई फिल्म सेतुबंधम से फिल्म उद्योग में वापसी करने की कोशिश की, पर असफल साबित हुई।
दादा साहेब फाल्के फाल्के पुरस्कार की स्थापना
1970 में दादा साहिब फाल्के की जन्म शताब्दी के अवसर पर, भारत सरकार ने फिल्म के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट योगदान को पहचानने के लिए उनके नाम पर दादा साहिब फाल्के पुरस्कार की स्थापना की। फिल्म अभिनेत्री देविका रानी फिल्म जगत में यह सम्मान हासिल करने वाली पहली अभिनेत्री थीं।
दादा साहब फाल्के ने तीन दशकों के अपने फिल्मी करियर में लगभग 100 फिल्मों का निर्देशन किया है। 1937 में रिलीज हुई फिल्म गंगावतरम दादा साहब फाल्के के फिल्मी करियर की आखिरी फिल्म साबित हुई। फिल्म बॉक्स ऑफिस पर विफल रही, जिससे दादा साहब फाल्के को गहरा सदमा लगा और फिल्म निर्माण हमेशा के लिए छोड़ दिया।
लगभग तीन दशकों तक अपनी फिल्मों से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने वाले प्रसिद्ध फिल्मकार दादा साहब फाल्के का 16 फरवरी, 1944 को नासिक में हम सब को अलविदा कह गए | हम महान फिल्मकार दादा साहब फाल्के को अज्ज भी सम्मान से याद करते हैं |