History

श्री गुरुगोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादों की शहादत और धरती की सबसे महंगी जगह सरहिंद

जैसे-जैसे हम सिख धर्म के इतिहास से रूबरू होते हैं, हमारे सामने शहादतों की एक लंबी श्रृंखला उभर कर सामने आती है। जिसमें सिख धर्म के पांचवें गुरु गुरु अर्जन देव जी को उस समय की मुगल सरकार ने गर्म तवी पर बिठा कर शहीद कर दिया था, क्योंकि उनके द्वारा रचित पवित्र बाणी के अलावा, उनसे पहले के चार सिख गुरुओं की बाणी, सूफी संत दरवेश, हिंदू भक्तों और भट्ट की बाणी को एक स्थान पर एकत्र कर आदि ग्रंथ के संपादन का कार्य पूरा किया।

डा. इकबाल सिंह सकरोदी लिखते हैं कि मुगल बादशाह जहांगीर इस महान कार्य को सहन नहीं कर सका और उसने गुरु अर्जन देव जी को अपार एवं असहनीय यातनाएं देकर शहीद कर दिया। नौवें पातशाह श्री गुरु तेग बहादुर जी ने हिंदू धर्म की रक्षा के लिए, मानवता को बचाने के लिए, जुल्म की आंधी को रोकने के लिए अपना बलिदान दिया ताकि समाज में सच्चे और उच्च मूल्यों की स्थापना हो सके।

गुरु तेग बहादुर जी के साथ-साथ भाई मतिदास, भाई सतिदास, भाई दयाला जी को भी अमानवीय यातनाओं से शहीद कर दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह जी के छोटे दो साहिबजादे (Sahibzadas) बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह जी की लासानी शहादत पहाड़ी राजाओं और मुगल सल्तनत की संयुक्त सेना द्वारा आनंदपुर साहिब किले की घेराबंदी के संदर्भ में है। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, मुगलों और पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने मई 1704 ई. को आनंदपुर के किले को घेर लिया। इस प्रकार खालसा सेना और शत्रु के बीच सात महीने से अधिक समय तक युद्ध चलता रहा। चल रही इस लड़ाई के दौरान, भूख और प्यास से थक चुके चाली सिखों ने दशमेश पिता गुरु गोबिंद सिंह जी को बेदावा लिखकर किला छोड़ दिया।

दूसरी ओर मुगलों और पहाड़ी राजाओं की सेना भी इतने लंबे समय तक लड़ने के बाद थक गई थी। वह भी अब लड़ाई के पक्ष में नहीं थे, उन लोगों ने गायों और पवित्र ग्रंथ कुरान शरीफ की झूठी शपथ लेकर गुरु गोबिंद सिंह से किला खाली करने और उन्हें सुरक्षित रास्ता देने का वादा किया। लेकिन गुरु साहिब मुगलों और पहाड़ी राजाओं की चालों से भलीभांति परिचित थे। लेकिन जब पांच प्यारों ने दशमेश पिता को किला खाली करने का आदेश जारी किया तो उन्हें किला खाली करने के लिए मजबूर होना पड़ा। सभी सरसा नदी के तट पर पहुंचे । आनंदपुर से आ रही मुगल सेना ने फिर उन्ह पर हमला कर दिया। अचानक हुए हमले से बड़ी संख्या में सिख सैनिक शहीद हो गये।

सिख धर्म से संबंधित बहुमूल्य साहित्य सरसा नदी की तेज धारा में बह गया। इसी स्थान पर दशमेश पिता का पूरा परिवार बिखर गया। गुरु जी के महल माता सुंदरी जी, माता साहिब कौर जी, भाई मणि सिंह, भाई धन्ना सिंह और भाई जवाहर सिंह के साथ रोपड़ की ओर आगे बढ़े। उनके साथ दो सेविका बीबी बिबो और बीबी भागो भी थीं।

गुरु गोबिंद सिंह जी, साहिबज़ादा (Sahibzadas) अजीत सिंह, साहिबज़ादा जुझार सिंह और चाली सिंह चमकौर की ओर आगे बढ़े। माता गुजरी जी, दोनों छोटे साहिबजादे (Sahibzadas) बाबा जोरावर सिंह, बाबा फतेह सिंह अलग-अलग पहाड़ी रास्तों पर चलते हुए आगे बढ़ने लगे। पोह महीने की कंपा देने वाली ठंड में, लगातार हो रही बारिश में भीगते हुए, दो छोटे मासूम साहिबजादे (Sahibzadas) अपनी दादी माँ की ऊँगली पकड़कर अंधेरे में जंगलों में अपने जीवन की कठिन यात्रा करते हुए चलते रहते हैं। मुश्किल कदमों पर चलते हुए दोनों साहिबजादे दादी माता गुजरी से सवाल करता जाते है |

कुम्मा माशकी एक नेक दिल और ईश्वर से डरने वाला व्यक्ति था। उन्होंने माता गुजरी और दो छोटे मासूम साहिबजादों (Sahibzadas) से अपनी कुटिया में आराम करने का अनुरोध किया। कुम्मा माशकी पास के गांव में रहने वाली लछमी नाम की महिला से खाना लेकर आई। महिला ने उसे ठंड से बचने के लिए कुछ गर्म कपड़े भी दिए। अगले दिन लछमी खुद खाना बनाकर ले आई। उन्होंने चारों को अपने हाथों से खाना खिलाया |

इतिहासकारों के अनुसार गंगू ब्राह्मण भी कुम्मे माशकी की कुटिया में आकर माता जी से मिला था। माता गुजरी, दोनों साहिबजादे, गंगू और एक खच्चर अपनी नाव में कुम्मा मशकी को सतलज नदी के तट पर चक ढेरा गाँव में ले आए। यहां से निकलते समय माता गुजरी ने लछमी को दो मुहरें और पांच सोने की चूड़ियां मूल्य की एक बहुमूल्य आरसी दी। माता जी ने कुम्मे मश्की को पाँच रुपये दिये। यहीं से गंगू माता गुजरी जी और दोनों साहिबजादों को अपने साथ ले गया। वह लालची था और माता गुजरी जी और साहिबजादों (Sahibzadas) को इस स्थान से जंगल जंगल में भटकते हुए अपने गांव सहेड़ी ले गया।

निस्संदेह, वह गुरु के घर का रसोइया था। लेकिन वह लालच में आ गया और गुरु द्वारा किए गए सभी उपकारों को भूल गया। गंगू सहेड़ी के चौधरी के साथ गया और माता गुजरी जी और दो छोटे साहिबजादों (Sahibzadas) के बारे में सारी जानकारी मोरिन्डे के रंगड़ कप्तान को दी।

सरहिंद के सूबेदार वजीर खान से इनाम पाने के लिए इन तीनों ने मिलकर साहिबजादों और दादी मां को बंदी बना लिया। साहिबजादों और माता गुजरी को एक ठंडे बुर्ज (ठंडी मीनार ) में कैद कर दिया गया। गुरु गोबिंद सिंह के यह दो लाल अपनी दादी के आंचल में बैठे वीरों, योद्धाओं, योद्धाओं और शहीदों की शहादत से जुड़ी बातें और कहानियां सुन-सुनकर अपने इरादे और भी मजबूत कर रहे थे । माता गुजरी उन बच्चों को समझा रही थी कि बच्चों! तुम अपने दादा की सफ़ेद पगड़ी को और चमकाओ, भले ही इसकी कीमत आपकी जान पर ही क्यों न आए, बेशक अपने सिर कटवा लें, लेकिन अपने धर्म, राष्ट्र, देश को कभी पीठ न दिखाएं।

अगले दिन सुबह-सुबह मुगल बादशाह के सैनिक दोनों साहिबजादों को नवाब वजीर खान के दरबार में पेश करने के लिए ले जाने आये। माता गुजरी ने अपने दोनों साहिबजादों को गले लगाया। साहिबजादे बड़े उत्साह से सिपाहियों के साथ चले। जैसे ही बच्चे दरबार के बाहर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि दरबार हॉल का बड़ा गेट बंद है | सभी लोग एक बहुत छोटी सी खिड़की से सिर झुकाये अन्दर जा रहे थे। यह सब मुगल दरबार के दीवान सुच्चा नंद की एक चाल थी। उसके मन में यह बुरी मंशा थी कि जब साहिबजादे दरबार में प्रवेश करें तो उनका सिर नवाब के सामने झुके।

लेकिन साहिबजादे को अपनी दादी से मिली शिक्षा के अनुसार वह युक्ति समझ में आ गई। जब दोनों अंदर जाने लगे तो उन्होंने सबसे पहले बिना झुके छोटी सी खिड़की के अंदर पैर रख दिए। साहिबजादों के बुद्धिमान व्यवहार को देखकर दीवान सुच्चा नंद और वज़ीर खान बहुत क्रोधित हुए। लेकिन उन्होंने सिर्फ दाँत पीसते रहे |

जैसे ही साहिबजादों ने दरबार में प्रवेश किया, उन्होंने सभी दरबारियों के सामने वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरे जी की फातिह का नारा लगाया। उनके निडर रवैये को देखकर दरबारी बहुत प्रभावित हुए। दीवान सुच्चा नंद ने साहिबजादों को वजीर खान के सामने झुकने को कहा।

तब साहिबजादों ने उत्तर दिया कि ‘हम केवल सर्वशक्तिमान प्रभु को प्रणाम करते हैं। नवाब वजीर खान ने साहिबजादों से कहा, ‘देखो, अगर तुम इस्लाम कबूल करोगे तो तुम जो भी मांगोगे, तुम्हें दिया जाएगा। दोनों साहिबजादे एक साथ बोले, नवाब वजीर खान, जैसे तुम्हें अपना धर्म प्यारा है, वैसे ही हमें भी अपना सिख धर्म प्यारा है। हम किसी भी कीमत पर अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे।” बच्चों का जवाब सुनकर नवाब को बहुत गुस्सा आया। उन्होंने साहिबजादों को डराने और डराने के लिए बहुत सी बातें कहीं। लेकिन नवाब की धमकियों का उन पर कोई असर नहीं हुआ।

इसके बाद वजीर खान ने दोनों बालकों को वापस ठंडे बुर्ज (ठंडी मीनार) पर भेज दिया। अगले दिन, बच्चों को फिर से दरबार में पेश होने के लिए बुलाया गया। दरबार में शेर मुहम्मद खाँ भी उपस्थित था। वजीर खान ने मालेरकोटले के नवाब को कहा, ‘तुम्हारे दोनों भाई गोबिंद सिंह के हाथों मारे गए हैं। इसलिए, मैंने इन बच्चों को सज़ा देने का निर्णय शेर मुहम्मद खान पर छोड़ दिया।’

लेकिन दयालु मालेरकोटला के नवाब ने कहा था, ‘नवाब वजीर खान, समय आने पर मैं गोबिंद सिंह से अपने भाइयों की मौत का बदला ले लूंगा।’ इस्लाम मासूम बच्चों पर जुल्म की इजाजत नहीं देता | या अल्लाह! मुझे इस पाप से बचाना।’ तब वजीर खान ने साहिबजादों से सवाल पूछा, ‘बच्चों! यदि तुम्हें रिहा कर दिया गया तो तुम जेल से बाहर जाकर क्या करोगे ?’

साहिबजादा जोरावर सिंह ने कहा, ‘हम अपने पिता के दिखाए रास्ते पर चलेंगे और वही करेंगे जो हमारे पिता कर रहे हैं | जुल्म और अत्याचार के खिलाफ हम लड़ेंगे | हम इस कार्य के लिए सिंहों को फिर से संगठित करेंगे। हम तब तक लड़ते रहेंगे जब तक दमनकारी सरकार का सफाया नहीं हो जाता |

दीवान सुच्चा नंद की साहिबाजदों के खिलाफ कही बातों का नवाब के दिल पर गहरा प्रभाव पड़ा। उसने तुरंत काजी से कहा, ”काजी साहब, जो गोबिंद के बच्चे आपके हाथ लग गए हैं, साहिबजादों छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है।” काजी पहले से ही ऐसे मौके की तलाश में था। उन्होंने फतवा पढ़ा, ‘बागी के बेटों को जिंदा दिवार में चिनवा दिया जाए।’

नवाब मलेरकोटला इस फतवे के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कह सके। वह तुरंत उठे और बड़े दुख और निराशा की स्थिति में नवाब वज़ीर खान के दरबार से बाहर चले गये। साहबजादे ठंडे बुर्ज (ठंडी मीनार) पर गए और दादी को पूरी बातचीत बताई। दादी ने अपने पोतों को गले लगा लिया और उनकी पीठ थपथपाई |

आख़िरकार वह शहीदी का दिन चढ़ा जब माता गुजरी ने दोनों साहिबजादों को तैयार किया। उन्होंने दादी माँ फ़तेह को बुलाया और दृढ़ संकल्प, साहस और ऊंचे इरादे के साथ सैनिकों के साथ चले गए। दोनों साहिबजादों को उस स्थान पर ले जाया गया जहां ईंटों की दीवार बनाई जा रही थी। उसी समय काजी भी वहां पहुंच गये |

दोनों साहिबजादे अपने इरादे पर अड़े रहे | बनती दीवार से उन्हें और ताकत मिली, काजी ने जल्लादों को शीघ्र दीवार बनाने का आदेश दिया। जैसे-जैसे दीवार ऊंची होती जा रही थी, जिनके दिलों में मानवता के लिए दर्द था उनकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे।

शाशल बेग, बाशल बेग दो जल्लाद भाइयों ने दोनों साहिबजादों (Sahibzadas) को शहीद कर दिया । जब साहिबजादों की शहादत की सूचना माता गुजरी जी को दी गई तो साहिबज़ादों की शहादत का उनकी मानसिक शक्ति पर भी बहुत प्रभाव पड़ा, उन्होंने पिछले चार दिनों से कुछ नहीं खाया था । इस प्रकार उसी क्षण उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिये।

उसी शाम दीवान टोडर मॉल दोनों साहिबजादों और माता गुजरी जी का अंतिम संस्कार करने की अनुमति मांगने के लिए नवाब वज़ीर खान के दरबार में गए। वजीर खान ने टोडर मॉल से कहा, ‘साहिबजादों और माता के अंतिम संस्कार के लिए तुम्हें उस जमीन पर ढेर सारी सोने की मुहरें खड़ी कर रखनी होंगी, तभी तुम इन साहिबजादों का अंतिम संस्कार कर पाओगे।’

ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, दीवान टोडर मल्ल की पत्नी ने अपने सारे गहने उतार दिए और दीवान के दोनों छोटे बेटों ने उन्हें पैसों से भरी अपनी गोलकें दे दीं ताकि अंतिम संस्कार किया जा सके। जब यह संपत्ति भी कम पड़ गई तो टोडर मल्ल ने अपनी हवेली बेच दी। इस प्रकार उन्होंने तीनो शवों का अंतिम संस्कार किया।

आपको बता दें धरती की सबसे मंहंगी जगह सरहिंद (पंजाब), जिला फतेहगढ़ साहब में है, यहां पर श्री गुरुगोबिंद सिंह जी के दो छोटे साहिबजादों का अंतिम संस्कार किया था | तब सेठ दीवान टोंडर मल ने इस जगह 78000 सोने की मोहरे (सिक्के) जमीन पर फैला कर मुस्लिम बादशाह वजीर खां से ज़मीन खरीदी थी। सोने की कीमत के मुताबिक इस 4 स्कवेयर मीटर जमीन की कीमत 2500000000 (दो अरब पचास करोड़) बनती है। दुनिया की सबसे मंहंगी जगह खरीदने का रिकॉर्ड आज भी सिख धर्म के इतिहास में दर्ज करवाया गया है।

गुरु गोबिंद सिंह जी उस समय रायकोट में थे, जब नूरा माही ने छोटे साहिबजादा और माता गुजरी जी की शहादत की खबर उनके पास पहुंचाई । गुरु गोबिंद सिंह जी के दो बड़े साहिबजादे (Sahibzadas) बाबा अजीत सिंह की उम्र 19 और साहिबजादा जुझार सिंह 15 साल की थी, जो मुगलों से लड़ते हुए चमकौर की लड़ाई में शहीद हो गए |

जब बाबा मोती राम मेहरा को पता चला कि माता गुजरी और दो छोटे साहिबजादे (Sahibzadas) भूख के कारण ठंडे बुर्ज में कैद हैं। उनके पास ठंड से बचने के लिए गर्म कपड़े भी नहीं हैं, तब उसकी मां और पत्नी ने उसे गर्म दूध दिया और ठंडे बुर्ज में भेज दिया। कड़ाके की ठंड में माता गुजरी और साहिबजादों ने गर्म दूध पिया। माता गुजरी जी ने उन्हें बहुत आशीर्वाद दिया।

लेकिन गंगू ब्राह्मण के भाई पम्मे ने नवाब वजीर खान से कहा, ‘मोती राम मेहरा ने सरकार के विद्रोहियों को दूध पिलाकर उनकी सेवा की है।’ वजीर खान ने गुस्से में लाल होकर मोती राम मेहरा और उसके पूरे परिवार को मार डाला। सदस्यों को कोहलू में कष्ट सहना पड़ा। इस प्रकार बाबा मोती राम मेहरा ने अपने परिवार का बलिदान दे दिया।

सिख धर्म के मूल सिद्धांतों में जहां कर्म करना, बाँट के खाने और नाम जप को प्राथमिकता दी गई है, वहीं अत्याचारियों और अत्याचारियों के सामने न झुकने का संदेश दिया गया है। सिख धर्म की नींव शहादत पर रखी गई है। श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का व्यक्तित्व बहुत महान है। इसकी मिसाल इतिहास में शयद ही कभी न मिले | वह महान थे। परदादा श्री गुरु अर्जन देव जी, दादा श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी और पिता श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी। इसके अलावा उल्लेखनीय बात यह है कि उनके चारों पुत्र (Sahibzadas) भी अपने बलिदान से इतने महान बने कि इतिहास उनकी प्रशंसा करते नहीं थकता।

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